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स꣡खा꣢य꣣ आ꣡ नि षी꣢꣯दत पुना꣣ना꣢य꣣ प्र꣡गा꣢यत । शि꣢शुं꣣ न꣢ य꣣ज्ञैः꣡ परि꣢꣯ भूषत श्रि꣣ये꣢ ॥११५७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्रगायत । शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥११५७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स꣡खा꣣यः । स । खा꣣यः । आ꣢ । नि । सी꣣दत । पुनाना꣡य꣢ । प्र । गा꣣यत । शि꣡श꣢꣯म् । न । य꣣ज्ञैः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । भू꣣षत । श्रिये꣢ ॥११५७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1157 | (कौथोम) 4 » 2 » 9 » 1 | (रानायाणीय) 8 » 5 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५६८ क्रमाङ्क पर परमात्मा की उपासना के विषय में की जा चुकी है। यहाँ अपने अन्तरात्मा का विषय वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सखायः) साथियो ! तुम (आ निषीदत) आकर बैठो, (पुनानाय) मन, बुद्धि आदि को पवित्र करनेवाले अपने अन्तरात्मा के लिए (प्र गायत) उद्बोधन-गीत गाओ और (श्रिये) शोभा के लिए उस सोम नामक अन्तरात्मा को (यज्ञैः) देवपूजा, सङ्गतिकरण, दान आदियों से (परि भूषत) अलंकृत करो, (शिशुं न) जैसे शिशु को सुरम्य वस्त्र, आभूषण आदियों से अलंकृत करते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मा में महान् शक्ति निहित है। उद्बोधन-गीतों से उस की शक्ति को जगाना चाहिए और नवीन-नवीन गुणों से तथा यज्ञ-भावनाओं से जीवात्मा को अलंकृत करना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५६८ क्रमाङ्के परमात्मोपासनाविषये व्याख्याता। अत्र स्वान्तरात्मविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सखायः) सुहृदः। यूयम् (आ निषीदत) आगत्य निषण्णा भवत, (पुनानाय) मनोबुद्ध्यादीनां पावकाय स्वान्तरात्मने (प्र गायत) उद्बोधनगीतानि गायत। अपि च (श्रिये) शोभायै, तम् सोमम् आत्मानम् (यज्ञैः) देवपूजासंगतिकरणदानादिभिः (परिभूषत) अलङ्कुरुत, (शिशुं न) यथा शिशुं सुरम्यवस्त्रालङ्कारादिभिः अलङ्कुर्वन्ति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मनि महती शक्तिर्निहिताऽस्ति। उद्बोधनगीतैस्तस्य सा शक्तिर्जागरयितव्या, नूतनैर्गुणग्रामैर्यज्ञभावनाभिश्च जीवात्माऽलङ्करणीयः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०४।१, साम० ५६८।